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Poem On Nature In Hindi-प्रकृति पर 70+ कवितायें

Poem On Nature In Hindi :

1. बागों में जब बहार आने लगे,
कोयल अपना गीत सुनाने लगे,
कलियों में निखार छाने लगे,
भँवरे जब उन पर मंडराने लगे,
मान लेना वसंत आ गया… रंग बसंती छा गया!!
खेतों में फसल पकने लगे,
खेत खलिहान लहलाने लगे,
डाली पे फूल मुस्काने लगे,
चारों ओर खुशबू फैलाने लगे,
मान लेना वसंत आ गया… रंग बसंती छा गया!!
आमों पे बौर जब आने लगे,
पुष्प मधु से भर जाने लगे,
भीनी-भीनी सुगंध आने लगे,
तितलियाँ उनपे मंडराने लगे,
मान लेना वसंत आ गया… रंग बसंती छा गया!!
सरसों पर पीले पुष्प दिखने लगे,
वृक्षों में नई कोंपले खिलने लगे,
प्रकृति सौंदर्य छटा बिखेरने लगे,
वायु भी सुहानी जब बहने लगे,
मान लेना वसंत आ गया… रंग बसंती छा गया!!
धूप जब मीठी लगने लगे,
सर्दी कुछ कम लगने लगे,
मौसम में बहार आने लगे,
ऋतू दिल को लुभाने लगे,
मान लेना वसंत आ गया… रंग बसंती छा गया!!
चाँद भी जब खिड़की से झाँकने लगे,
चुनरी सितारों की झिलमिलाने लगे,
योवन जब फाग गीत गुनगुनाने लगे,
चेहरों पर रंग अबीर गुलाल छाने लगे,
मान लेना वसंत आ गया… रंग बसंती छा गया!!


2. वृक्ष प्रकृति का है श्रंगार,
इनको क्यों काट रहा है इंसान,
नष्ट इसे करके अपने ही पांव पर,
कुल्हाड़ी क्यों मार रहा है इंसान।


3. हरी ही हरी खेतों,
में बरस रहे हैं बूंदे,
खुशी-खुशी से आया सावन,
भर गया मेरा आँगन।
ऐसा लग रहा है जैसे,
मन की कलियाँ खिल गई वैसे,
ऐसा कि आया बसंत,
लेके फूलों का जश्न।
धूप से प्यासी मेरे तन को,
बूंदों ने दी ऐसे अंगडाई,
कूद पड़ा मेरा तन-मन,
लगता है मैं हूँ एक दामन।
यह संसार है कितना सुंदर,
लेकिन लोग नहीं उतने अकलमंद,
यही है एक निवेदन,
न करो प्रकृति का शोषण।


4. हरी डाल पर लगी हुई थी,
नन्हीं सुंदर एक कली।
तितली उससे आकर बोली,
तुम लगती हो बड़ी भली।
अब जागों तुम आँखें खोलो,
और हमारे संग खेलो।
फैले सुंदर महक तुम्हारी,
महके सारी गली-गली।
कली छिटककर खिली रंगीली,
तुरंत खेल की सुनकर बात।
साथ हवा के लगी भागने,
तितली छूने उसे चली।


5. हरे-हरे पत्ते, कुडकुडा रहे हैं,
मस्त हैं मौसम की मौज में, या ठंड लग रही है,
ये बात किस्से पूछो,
नजदीक जब गया मैं, और कान जो लगाए,
फिर भी समझ परे था,
ये गूंज जो उठी है, दांत कडकडाए या पेड़ गुनगुनाए,
जो कुछ भी हो, जहाँ भी हो, मतलब नहीं,
पर संगीत बन रहा है, संग मतलब निकल रहा है,
मतलब उस परिंदे के लिए, जो धुन को दूर से सुनकर,
खुद राग बन गया है,
इस पेड़ की इक साख से लटका,
खानाबदोश खुद का घरोंदा बन रहा है।


6. ये प्रकृति शायद कुछ कहना चाहती है हमसे,
यर हवाओं की सरसराहट,
ये पेड़ों पर फुदकती चिड़ियों की चहचाहहट,
ये समुन्दर की लहरों का शोर,
ये बारिश में नाचते सुंदर मोर,
कुछ कहना चाहती है हमसे।
ये प्रकृति शायद कुछ कहना चाहती है हमसे,
ये खूबसूरत चांदनी रात,
ये तारों की झिलमिलाती बरसात,
ये खिले हुए सुंदर रंग-बिरंगे फूल,
ये उडती हुई धूल,
कुछ कहना चाहती है हमसे।
ये प्रकृति शायद कुछ कहना चाहती है हमसे,
ये नदियों की कलकल,
ये मौसम की हलचल,
ये पर्वत की चोटियाँ,
ये झींगुर की सीटियाँ,
कुछ कहना छाती हैं हमसे।
ये प्रकृति शायद कुछ कहना चाहती है हमसे।


7. माँ की तरह हम पर प्यार लुटाती है प्रकृति,
बिना मांगे हमें कितना कुछ देती जाती है प्रकृति…
दिन में सूरज की रोशनी देती है प्रकृति,
रात में शीतल चांदनी लती है प्रकृति…
भूमिगत जल से हमारी प्यास बुझाती है प्रकृति,
और बारिश में रिमझिम जल बरसाती है प्रकृति…
दिन-रात प्राणदायिनी हवा चलाती है प्रकृति,
मुफ्त में हमें ढ़ेरों साधन उपलब्ध करती है प्रकृति…
कहीं रेगिस्तान तो कहीं बर्फ बिछा रखे हैं इसने,
कहीं पर्वत खड़े किए तो कहीं नदी बहा रखे हैं इसने…
कहीं गहरे खाई खोदे तो कहीं बंजर जमीन बना रखे हैं इसने,
कहीं फूलों की वादियाँ बसाई त्यों कहीं हरियाली की चादर बिछाई है इसने…
मानव इसका उपयोग करे इससे इसे कोई ऐतराज नहीं,
लेकिन मानव इसकी सीमाओं को तोड़े यह इसको मंजूर नहीं…
जब-जब मानव उदंडता करता है, तब-तब चेतावनी देती है यह,
जब-जब इसकी चेतावनी नजरअंदाज की जाती है, तब-तब सजा देती है यह…
विकास की दौड़ में प्रकृति को नजरअंदाज करना बुद्धिमानी नहीं है,
क्योंकि सवाल है हमारे भविष्य का, यह कोई खेल-कहानी नहीं है…
मानव प्रकृति के अनुसार चले यही मानव के हित में है,
प्रकृति का सम्मान करें सब, यही हमारे हित में है।


8. काली घटा छाई है,
लेकर साथ अपने यह,
ढेर सारी खुशियाँ लायी हैं,
ठंडी-ठंडी सी हवा यह,
बहती कहती चली आ रही है,
काली घटा छाई है।
कोई आज बरसों बाद खुश हुआ,
तो कोई आज खुशी से पकवान बना रहा,
बच्चों की टोली यह,
कभी छत तो कभी गलियों में,
किलकारियां सीटी लगा रहे,
काली घटा छाई है।
जो गिरी धरती पर पहली बूंद,
देख इसको किसान मुस्कराया,
संग जग भी झूम रहा,
जब चली हवाएं और तेज,
आंधी का यह रूप ले रही,
लगता ऐसा कोई क्रांति अब शुरु हो रही,
छुपा जो झूट अमीरों का,
कहीं गली में गढ़ा तो कहीं,
बड़ी-बड़ी ईमारत यूँ ढह रही,
अंकुर जो भूमि में सोए हुए थे,
महसूस स वातावरण को,
वो भी अब फूटने लगे,
देख बगीचे का माली यह,
खुशी से झूम रहा,
और कहता काली घटा छाई है,
साथ अपने यह ढेर सारी खुशियाँ लाई है।


9. कलयुग में अपराध का,
बढ़ा अब इतना प्रकोप,
आज फिर से काँप उठी,
देखो धरती माता की कोख!!
समय-समय पर प्रकृति,
देती रही कोई-न-कोई चोट,
लालच में इतना अँधा हुआ,
मानव को नहीं रहा कोई खौफ!!
कहीं बाढ़, कहीं पर सूखा,
कभी महामारी का प्रकोप,
यदा कड़ा धरती हिलती,
फिर भूकंप से मरते बे मौत!!
मंदिर मस्जिद और गुरुद्वारे,
चढ़ गए भेट राजनितिक के लोभ,
वन संपदा, नदी पहाड़, झरने,
इनको मिटा रहा इंसान हर रोज!!
सबको अपनी चाह लगी है,
नहीं रहा प्रकृति का अब शौक,
‘धर्म’ करे जब बाते जनमानस की,
दुनिया वालों को लगता है जोक!!
कलयुग में अपराध का,
बढ़ा अब इतना प्रकोप,
आज फिर से काँप उठी,
देखो धरती माता की कोख!!


10. हे ईश्वर तेरी बनाई यह धरती, कितनी ही सुंदर,
नए-नए और तरह-तरह के,
एक नहीं कितने ही अनेक रंग!
कोई गुलाबी कहता,
तो कोई बैंगनी, तो कोई लाल,
तपती गर्मी में,
हे ईश्वर, तुम्हारा चंदन जैसे वृक्ष,
शीतल हवा बहाते,
खुशी के त्यौहार पर,
पूजा के समय पर,
हे ईश्वर, तुम्हारा पीपल ही,
तुम्हारा रूप बनता,
तुम्हारे ही रंगों भरे पंछी,
नील अम्बर को सुनेहरा बनाते,
तेरे चौपाए किसान के साथी बनते,
हे ईश्वर, तुम्हारी यह धरी बड़ी ही मीठी।


11. है महका हुआ गुलाब,
खिला हुआ कंवल है,
हर दिल में है उमंगे,
हर लब पे गजल है,
ठंडी-शीतल बहे ब्यार,
मौसम गया बदल है,
हर डाल ओढ़ा नई चादर,
हर कलि गई मचल है,
प्रकृति भी हर्षित हुआ जो,
उया बसंत का आगमन है,
चूजों ने भरी उड़ान जो,
गए पर नए निकले हैं,
है हर गाँव में कौतूहल,
हर दिल गया मचल है,
चखेंगे स्वाद नए अनाज का,
पक गए जो फसल है,
त्यौहारों का है मौसम,
शादियों का अब लगन है,
लिए पिया मिलन की आस,
सज रही ‘दुल्हन’ है,
है महका हुआ गुलाब,
खिला हुआ कंवल है…!!


12. हवाओं के रुख से लगता है कि रुखसत हो जाएगी बरसात,
बेदर्द समां बदलेगा और आँखों से थम जाएगी बरसात,
अब जब थम गई है बरसात तो किसान तरसा पानी को,
बो बैठा है इसी आस में कि अब कब आएगी बरसात,
दिल की बगिया को इस मौसम से कोई नहीं रही आस,
आजाओ तुम इस बे रूखे मौसम में बन के बरसात,
चांदनी चादर बन ढक लेती हैं जब गलतफहमियां हर रात,
तब सुबह नई किरणों से फिर होती हैं खुशियों की बरसात,
सुबह की पहली किरण जब छू केटी हैं तेरी पलकें,
चारों तरफ कलियों से तेरी खुशबू की हो जाती बरसात,
नहा धो कर चमक जाती हर चोटी धोलाधार की,
जब पश्चिम से बादल गरजते चमकते बनते बरसात।


13. सुंदर रूप इस धरा का,
आंचल जिसका नीला आकाश,
पर्वत जिसका ऊँचा मस्तक,2,
उस पर चाँद सूरज की बिंदियों का ताज,
नदियों-झरनों से छलकता यौवन,
अतरंगी पुष्प-लताओं ने किया श्रंगार,
खेत-खलिहानों में लहलाती फसलें,
बिखराती मंद-मंद मुस्कान,
हाँ, यही तो हैं,…
इस प्रकृति का स्वछंद स्वरूप,
प्रफुल्लित जीवन का निश्छल सार।


14. हमें तो जब भी कोई फूल नजर आया है,
उसके रूप की कोशिश ने हमें लुभाया है,
जो तारीफ न करें कुदरती करिश्मों की,
क्यों हमने फिर मानव का जन्म पाया है।


15. धरती माँ कर रही है पुकार,
पेड़ लगाओ यहाँ भरमार।
वर्षा के होएंगे तब अरमान,
अन्न पैदा होगा भरमार।
खुशहाली आएगी देश में,
किसान हल चलाएगा खेत में।
वृक्ष लगाओ वृक्ष बचाओ,
हरियाली लाओ देश में।
सभी अपने-अपने दिल में सोच लो,
सभी दस-दस वृक्ष खेत में रोप दो।
बारिस होगी फिर तेज,
मरु प्रदेश का फिर बदलेगा वेश।
रेत के धोरे मिट जाएंगे,
हरियाली राजस्थान में दिखाएंगे।
दुनिया देख करेगी विचार,
राजस्थान पानी से होगा रिचार्ज।
पानी की कमी नहीं आएगी,
धरती मन फसल खूब सिंचाएगी।
खाने को होगा अन्न,
किसान हो जाएगा धन्य।
एक बार फिर कहता है मेरा मन,
हम सब धरती माँ को पेड़ लगाकर करते हैं टनाटन।
“जय भारत माँ”


16. लो आ गया फिर से हंसी मौसम बसंत का,
शुरुआत है बस ये निष्ठुर जाड़े के अंत का,
गर्मी तो अभी दूर है वर्षा न आएगी,
फूलों की महक हर दिशा में फैल जाएगी,
पेड़ों में नई पत्तियां इठला के फूटेंगी,
प्रेम की खातिर सभी सीमाएं टूटेंगी,
सरसों के पीले खेत ऐसे लहलहाएंगे,
सुख के पल जैसे अब कहीं न जाएंगे,
आकाश में उड़ती हुई पतंग यह कहे,
डोरी से मेरा मेल है आदि अनंत का,
लो आ गया फिर से हँसी मौसम बसंत का,
शुरुआत है बस ये निष्ठुर जाड़े के अंत का।
ज्ञान की देवी को भी मौसम है ये पसंद,
वातावरण में गूंजते है उनकी स्तुति के छंद,
स्वर गूंजता है जब मधुर वीणा की तान का,
भाग्य ही खुल जाता है हर इक इंसान का,
माता के श्वेत वस्त्र यही तो कामना करें,
विश्व में इस ऋतू के जैसी सुख शांति रहे,
जिसपे भी हो जाए माँ सरस्वती की कृपा,
चेहरे पे ओज आ जाता है जैसे एक संत का,
लो आ गया फिर से हंसी मौसम बसंत का,
शुरुआत है बस ये निष्ठुर जाड़े के अंत का।


17. जय भारत माँ,
जय गंगा माँ,
जय नारी माँ,
जय गौ माँ।
माँ तुम्हारा ये प्यार है,
हम लोगों का संस्कार है।
माँ तुम्हारा जो आशीर्वाद है,
हमारे दिल में आपका वास है।
माँ हमारे दिल की धडकन में,
तुम्हारे जीवन की तस्वीर है।
माँ हम तुम्हें अवश्य बचाएंगे,
माँ तुम्हारे दूध की ताकत को,
दुनिया को दिखलाएंगे।
हम भारत माँ के वीर हैं,
हम नारी माँ के पूत है,
हम गौ माँ के सपूत हैं,
हम गंगा माँ के दूत है।
हमने लाल दूध पिया है नारी माँ का,
हमने पीला दूध पिया है गौ माँ का,
हमने सफेद दूध पिया है गंगा माँ का,
हमने हर दूध पिया है भारत माँ का।
इस दूध की ताकत का अंदाजा नहीं,
दुश्मन की छाती को फाड़ें,
हम पर यह अहसान नहीं,
हमने लाल दूध पिया है नारी माँ का।


18. इस लहलाती हरियाली से, सजा है गाँव मेरा…
सोंधी सी खुशबू, बिखेरे हुए है गाँव मेरा…!!
जहाँ सूरज भी रोज, नदियों में नहाता है…
आज भी यहाँ मुर्गा ही, बांग लगाकर जगाता है!!
जहाँ गाय चुराने वाला ग्वाला, कृष्ण का स्वरूप है…
जहाँ हर पनहारन मटकी लिए, धरे राधा का रूप है!!
खुद में समेटे प्रकृति को, सदा जीवन गाँव मेरा…
इंद्रधनुषी रंगों से ओतप्रोत है, गाँव मेरा…!!
जहाँ सर्दी की रातों में, आले तापते बैठे लोग…
और गर्मी की रातों में, खटिया बिछाए बैठे लोग!!
जहाँ राम-राम की ही, ध्वनि सुबह-शाम है…
यहाँ चले न हाय हेलो, हर आने-जाने वाले को बस ‘सीता राम’ है!!
भजनों और गुम्बटन की मधुर ध्वनि से, है संगीतमय गाँव मेरा…
नदियों की कल-कल ध्वनि से, भरा हुआ है गाँव मेरा!!
जहाँ लोग पेड़ों की छाँव तले, प्याज रोटी भी में से खाते है…
वो मजे खाना खाने के, इन होटलों में कहा आते हैं!!
जहाँ शीतल जल इन नदियों का, दिल की प्यास बुझाता है…
वो मजा कहाँ इन मधुशाला की बोतलों में आता है…!!
ईश्वर की हर सौगात से, भरा हुआ है गाँव मेरा…
कोयल के गीतों और मोर के नृत्य से, संगीत भरा हुआ है गाँव मेरा!!
जहाँ मिट्टी की है महक, और पंछियों की है चहक…
जहाँ भवरों की गुंजन से, गूंज रहा है गाँव मेरा…!!
प्रकृति की गोद में खुद को समेटे है गाँव मेरा…
मेरे भारत देश की शान है, ये गाँव मेरा…!!


19. विश्व पर्यावरण दिवस पर विशेष,
यह प्रकृति कुछ कहना चाहती है…
यह प्रकृति कुछ कहना चाहती है,
अपने दिल को भेद खोलना चाहती है,
भेजती रही है हवाओं द्वारा अपना संदेश।
जरा सुनों तो! जो वह कहना चाहती है।
उसका अरमान, उसकी चाहत है क्या?
सिवा आदर के वो कुछ चाहती है क्या?
बस थोडा-सा प्यार, थोडा-सा ख्याल,
यही तो मात्र मांग है इसकी,
और भला वह हमसे मांगती है क्या?
यह चंचल नदियाँ इसका लहराता आंचल,
है काले केश यह काली घटाओं सा बादल,
हरे-भरे वृक्ष, पेड़-पौधों और वनस्पतियाँ,
हरियाली सी साड़ी में लगती है क्या कमल।
इसका रूप-श्रंगार हमारी खुशहाली नहीं है क्या?
है ताज इसका यह हिमालय पर्वत,
उसकी शक्ति-हिम्मत शेष सभी पर्वत,
अक्षुण रहे यह तठस्थता व मजबूती,
क्योंकि इसका गर्व है यह सभी पर्वत।
इसका यह गौरव हमारी सुरक्षा नहीं है क्या?…
यह रंगीन बदलते हुए मौसम,
शीत, बसंत, ग्रीष्म और सावन,
हमारे जीवन सा परिवर्तन शील यह,
और सुख-दुःख जैसे रात-दिन।
जिनसे मिलता है नित कोई पैगाम नया, क्या?
इस प्रकृति पर ही यदि निर्भरता है हमारी,
सच मानो तो यही माता भी है हमारी,
हमारे अस्तित्व की परिभाषा अपूर्ण है इसके बिना,
यही जीवनदायिनी व यही मुक्तिदायिनी है हमारी।
अपने ही मूल से नहीं हो रहे हम अनजान क्या?
हमें समझाना ही होगा, अब तक जो न समझ पाए,
हमारी माता की भाषा/अभिलाषा को क्यों न समझ पाए,
दिया ही दिया उसने अब तन अपना सर्वस्व, कभी लिया नहीं,
इसके एहसानों, उपकारों का मोल क्यों न चुका पाए।
आधुनिकता/उद्योगीकरण ने हमें कृतघ्न नहीं बना दिया क्या?…


20. कोन से साँचो में तूं है बनाता, बनाता है ऐसा तराश-तराश के,
कोई न बना सके तूं ऐसा बनाता, बनाता है उनमें जान डाल के!
सितारों से भरा ब्रह्माण्ड रचाया, न जाने उसमें क्या-क्या है समाया,
ग्रहों को आकाश में सजाया, न जाने कैसा अटल है घुमाया,
जो नित नियम गति से अपनी दिशा में चलते हैं,
अटूट प्रेम में घूम-घूमकर, पल-पल आगे बढ़ते हैं!
सूर्य को है ऐसा बनाया, जिसने पूरी सृष्टि को चमकाया,
जो कभी नहीं बुझ पाया, न जाने किस ईंधन से जगता है,
कभी एक शोर, कभी दूसरे शोर से,
धरती को अभिनंदन करता है!
तारों की फौज लेके, चाँद धरा पे आया,
कभी आधा, कभी पूरा है चमकाया,
कभी-कभी सुबह शाम को दिखाया,
कभी चिप-चिप के निगरानी करता है!
धरती पर माटी को बिखराया, कई रंगों से इसे सजाया,
हवा पानी को धरा पे बहाया, सुरमई संगीत बजाय,
सूर्य ने लालिमा को फैलाया, दिन-रात का चक्कर चलाया,
बदल-बदल के मौसम आया, कभी सुखा कभी हरियाली लाया!
आयु के मुताबिक सब जीवों को बनाया,
कोई धरा पे, कोई आसमान में उड़ाया,
किसी को जमीन के अंदर है छिपाया,
सबके ह्रदय में तू है बसता,
सबका पोषण तू ही करता!
अलग-अलग रूप का आकार बनाया,
फिर भी सब कुछ सामूहिक रचाया,
सबको है काम पे लगाया,
नीति नियम से सब कुछ है चलाया,
हर रचना में रहस्य है छिपाया,
दृश्य कल्पनाओं में जग बसाया,
सब कुछ धरा पे है उगाया,
समय की ढाल पे इसमें ही समाया!
जब-जब जग जीवन संकट में आया,
किसी ने धरा पे उत्पात मचाया,
बन-बन के मसीहा तू ही आया,
दुनिया को सही मार्ग दिखाया,
तेरे आने का प्रमाण धरा पे ही पाया,
तेरे चिन्हों पे जग ने शीश झुकाया!
इस जग का तू ही कर्ता,
जब चाहे करिश्में करता,
सब कुछ जग में तू ही घटता,
पल-पल में परिवर्तन करता!
बन-बन के फरिश्ता धरा पे उतरना,
इस जग पे उपकार तू करना,
मानव मन में सोच खरी भरना,
जो पल-पल प्रकृति से खिलवाड़ है करता!


21. बाग में खुशबू फैल गई, बगिया सारी महक गई,
रंग-बिरंगे फूल खिले, तितलियाँ चकरा गईं,
लाल, पीले, सफेद गुलाब, गेंदा, जूही, खिले लाजवाब,
नई पंखुरियां जाग गई, बंद कलियाँ झांक रही।
चम्पा, चमेली, सूर्यमुखी, सुखद पवन गीत सुना रही,
महकते फूलों की क्यारी, सब के मन को लुभा रही,
धीरे से छू कर देखो खुशबू, तुम पर खुशबू लुटा रही,
महकते फूलों की डाली, मन ही मन इतर रही,
हौले-हौले पांव धरो, भंवरों की गुंजार बड़ी,
ओस की बूंदे चमक रहीं, पंखुरिया हीरों सी जड़ी,
सबको सजाते महकते फूल, सबको रिझाते महकते फूल,
महकते फूलों से सजे द्वार, महकते फूल बनते उपहार…


22. लो, फिर आ गया जाड़ों का मौसम,
पहाड़ों ने ओढ़ ली चादर धूप की,
किरणें करने लगी अठखेली झरनों से,
चुपके से फिर देख ले उसमें अपना रूप।
सुबह भी इतराने लगी है,
सुबह के टेल की चाबी,
जो उसके हाथ लगी है।
भीगे पत्तों को अपने पे,
गुरुर हो चला है,
आजकल है मालामाल,
जेबें मोतियों से भरी हैं।
धुंध खेले आँख मिचोली,
हवाओं से,
फिर थक के सो जाए,
वादियों की गोद में।
आसमान सवरने में मसरूफ है,
सूरज इक जरा मुस्कुरा दे,
तो शाम को,
शरमा के सुर्ख लाल हो जाए।
बर्फीली हवाएं देती थपकियाँ रात को,
चुपचाप सो जाए वो,
करवट लेकर।


23. रंग-बिरंगी खिलती कलियाँ,
गूंजे भंवरे उड़ती तितलियाँ,
सूर्य-किरणें अब फ़ैल गईं,
कलियों का घूंघट खोल गईं,
कलि-कलि को देख रही,
देख-देख कर हंसी रही,
मस्त पवन का झोंका आया,
मीठे सुर में गीत सुनाया,
डाली-डाली लगी लहराने,
क्या मस्ती भी लगी छाने,
देख-देख मन लुभाया,
कलि-कलि का मन इतराया,
कितनी कलियाँ एक बगीचा,
माली ने सब को है सींचा,
सींच-सींच कर बड़ा किया,
कलियों ने मन हर लिया,
ए माली मत हाथ लगाना,
कुम्हला न जाएँ इन्हें बचाना,
कलि को फूल बदलते देखो,
महकते फूलों की फुलवारी देखो।


24. रह-रहकर टूटता रब का कहर,
खंडहरों में तब्दील होते शहर,
सिहर उठता है बदन,
देख आतंक की लहर,
आघात से पहली उबरे नहीं,
तभी होता प्रहार ठहर-ठहर,
कैसी उसकी लीला है,
ये कैसा उमड़ा प्रकृति का क्रोध,
विनाश लीला कर,
क्यों झुंझलाकर करे प्रकट रोष,
अपराधी जब अपराध करे,
सजा फिर उसकी सबको क्यों मिले,
पापी बैठे दरबारों में,
जनमानस को पीड़ा का इनाम मिले,
हुआ अत्याचार अविरल,
इस जगत जननी पर पहर-पहर,
कितना सहती, रखती संयम,
आवरण पर निश दिन पड़ता जहर,
हुई जो प्रकृति संग छेड़छाड़,
उसका पुरस्कार हमको पाना होगा,
लेकर सीख आपदाओं से,
अब तो दुनिया को संभल जाना होगा,
कर क्षमायाचना धरा से,
पश्चाताप की उठानी होगी लहर,
शायद कर सके हर्षित,
जगपालक को, रोक सके जो वो कहर,
बहुत हो चुकी अब तबाही,
बहुत उजड़े घरबार, शहर,
कुछ तो करम करो ऐ ईश,
अब न ढहाओ तुम कहर!!
अब न ढहाओ तुम कहर!!


25. क्यूँ मायूस हो तुम टूटे दरख्त,
क्या हुआ जो तुम्हारी टहनियों में पत्ते नहीं,
क्यूँ मन मलीन है तुम्हारा कि,
बहारों में नहीं लगते फूल तुम पर,
क्यूँ वर्षा ऋतू की बात जोहते हो,
क्यूँ भींग जाने को वृष्टि की कामना करते हो,
भूलकर निज पीड़ा देखो उस शहीद को,
तजा जसने प्राण, अपनों की रक्षा को,
कब खुद के श्वास बिसरने का,
उसने शोक मनाया है,
सहेजने को औरों की मुस्कान,
अपना शीश गवाया है,
क्या हुआ जो नहीं हैं गुंजायमान तुम्हारी शाखें,
चिड़ियों के कलरव से,
चीड़ डालो खुद को और बना लेने दो,
किसी गरीब को अपनी छत,
या फिर ले लो निर्वाण किसी मिट्टी के चूल्हे में,
और पा लो मोक्ष उन भूखे अधरों की मुस्कान में,
नहीं हो मायूस जो तुम हो टूटे दरख्त….


26. संभल जाओ ऐ दुनिया वालो,
वसुंधरा पे करो घातक प्रहार नहीं!
रब करता आगाह हर पल,
प्रकृति पर करो घोर अत्याचार नहीं!!
लगा बारूद पहाड़, पर्वत उड़ाए,
स्थल रमणीय सघन रहा नहीं!
खोद रहा खुद इंसान कब्र अपनी,
जैसे जीवन की अब परवाह नहीं!!
लुप्त हुए अब झील और झरने,
वन्यजीवों को मिला मुकाम नहीं!
मिटा रहा खुद जीवन के अवयव,
धरा पर बचा जीव का आधार नहीं!!
नष्ट किए हमने हरे भरे वृक्ष, लताए,
दिखे कही हरयाली का अब नाम नहीं!
लहलाते थे कभी वृक्ष हर आंगन में,
बचा शेष उन गलियारों का श्रंगार नहीं!
कहा गए हंस और कोयल, गोरैया,
गौ माता का घरों में स्थान रहा नहीं!
जहाँ बहती थी कभी दूध की नदियाँ,
कुएं, नलकूपों में जल का नाम नहीं!!
तबाह हो रहा सब कुछ निश दिन,
आनंद के अलावा कुछ याद नहीं!
नित नए साधन की खोज में,
पर्यावरण का किसी को रहा ध्यान नहीं!!
विलासिता से शिथिलता खरीदी,
करता ईश पर कोई विश्वास नहीं!
भूल गए पाठ सब रामायण गीता के,
कुरान, बाइबल किसी को याद नहीं!!
त्याग रहे नित संस्कार अपने,
बुजुर्गों को मिलता सम्मान नहीं!
देवो की स पावन धरती पर,
बचा धर्म-कर्म का अब नाम नहीं!!
संभल जाओ ऐ दुनिया वालो,
वसुंधरा पे करो घातक प्रहार नहीं!
रब करता आगाह हर पल,
प्रकृति पर करो घोर अत्याचार नहीं!!


27. ये सर्व विदित है चंद्र,
किस प्रकार लील लिया है,
तुम्हारी अपरिमित आभा ने,
भूतल के अंधकार को,
क्यूँ प्रतीक्षारत हो,
रात्रि के यायावर के प्रतिपुष्टि की,
वो उनका सत्य है,
यामिनी का आत्मसमर्पण,
करता है तुम्हारे विजय की घोषणा,
पाषाण-पथिक की ज्योत्सना अमर रहे,
युगों से इंगित कर रही है,
इला की सुकुमार सुलोचना,
नहीं अधिकार चंद्रकिरण को,
करे शशांक की आलोचना।


28. मैं निशि की चंचल,
सरिता का प्रवाह,
मेरे अघोड़ तप की माया,
यदि प्रतीत होती है,
किसी रुदाली को शशि की आभा,
तो स्वीकार है मुझे ये संपर्क,
जाओ पथिक, मार्ग प्रशस्त तुम्हारा,
और तजकर राग विहाग,
राग खमाज तुम गाओ,
मैं मार्गदर्शक तुम्हारी,
तुम्हारे जीवन के भोर होने तक।


29. एक बूंद ने कहा, दूसरी बूंद से,
कहाँ चली तू यूँ मंडराए?
क्या जाना तुझे दूर देश है,
बन-थन इतनी संवराए,
जरा ठहर, वो बूंद उसे देख गुर्राई,
फिर मस्ती में चल पड़ी, वो खुद पर इतराए,
एक आवारे बादल ने रोका रास्ता उसका,
कहा क्यों हो तुम इतनी बौराए?
ऐसा क्या इरादा तेरा,
जो हो इतनी घबराए?
हट जा पागल मरे रास्ते से,
बोली बूंद जरा मुस्काए,
जो न माने बात तू मेरी,
तो दूँ मैं तुझे गिराए,
चली पड़ी फिर वो फुरफुराए,
आगे टकराई वो छोटी बूंद से,
छोटी बूंद उसे देख खिलखिलाए,
कहा दीदी चली कहाँ तुम यूँ गुस्साए?
क्या हुआ झगड़ा किसी से,
जो हो तुम मुंह फुलाए?
कहा सुन छोटी बात तू मेरी,
जरा ध्यान लगाए,
मैं तो हूँ बूंद सावन की कहे जो तू,
तू लूँ खुद में समाए,
बरसे हूँ मैं खेत-खलिहानों में,
ताल-सराबर दूँ भरमाए,
वर्षा बन धरती पर बरसूँ,
प्रकृति को दूँ लुभाए,
लोग जोहे हैं राह मेरी,
क्यों हूँ मैं इतनी देर लगाए?
सुन छोटी, जाना है जल्दी मुझे,
दूँ मैं वन में मोर नचाए,
हर मन में सावन बसे हैं,
जाऊं मैं उनका हर्षाए,
हर डाली सुनी पड़ी है,
कह आऊँ कि लो झूले लगाए,
बाबा बसते कैलाश पर्वत पर,
फिर भी सब शिवालय में जल चढ़ाए,
हर तरफ खुशियाँ दिखे हैं,
दूँ मैं दुखों को हटाए,
पर तुम क्यों उदास खड़ी हो,
मेरी बातों पर गंभीरता जताए?
कहा दीदी ये सब तो ठीक है,
पर लाती तुम क्यों बाढ़ कहीं पर कहीं सूखा कहाए?
क्या आती नहीं दया थोड़ी भी,
कि लूँ मैं उन्हें बचाए?
न-न छोटी ऐसा नहीं है,
हर साल आती मैं यही बताए,
प्रकृति से न करो छेड़छाड़ तुम,
यही संदेश लोगों को सिखाए,
पर सुनते नहीं बात एक भी,
किस भाषा उन्हें समझाए?
समझ गई मैं दीदी तेरी हर भाषा,
अब न ज्यादा वक्त गंवाए,
मैं भी हूँ अब संग तुम्हारे,
चलो अपना संदेश धरती पर बरसाए,
कर लो खुद में शामिल तुम,
लो अपनी रूह बसाए,
आओ चलें दोनों धरती पर,
इक-दूजे पर इतराए।


30. मेरी निशि की दीपशिखा,
कुछ इस प्रकार प्रतीक्षारत है,
दिनकर के एक दृष्टि की,
ज्यूँ बांस पर टंगे हुए दीपक,
तकते हैं आकाश को,
पंचगंगा की घाट पर,
जानती हूँ भस्म कर देगी,
वो प्रथम दृष्टि भास्कर की,
जब होगा प्रभात का आगमन स्निग्ध सौंदर्य के साथ,
और शंखनाद तब होगा,
घंटियाँ बज उठेंगी,
मन मंदिर के कपाट पर,
मद्धिम सी स्वर लहरियां करेंगी आहलादित प्राण,
कर विसर्जित निज उर को प्रेम धारा में,
पंचतत्व में विलीन हो जाएगी बाती,
और मेरा अस्ताचलगामी सूरज,
क्रमशः अस्त होगा,
यामिनी के ललाट पर,
बेरोजगारी।


31. अरे ओ, जीवन से निराश योद्धाओं सुनो,
सड़क पर भटकते बेरोजगारों सुनो,
अँधेरे से निकलने को कुछ कर्म तो करो।
अपनी स्थिति को मानकर कुछ शर्म तो करो।
कब तक कोसते रहोगे तुम, अपने सरकार को?
क्या भुला डोज तुम दुनिया के तिरस्कार को?
दुर्भाग्य से निकलने का जतन तो करो।
अपनी धडकनों को समझने का प्रयत्न तो करो।
माँ की ढेरों तमन्ना थी, तेरे जन्म के बाद,
पिता ने देखे थे सपने दशकों बाद,
उनके ख्वाबों को आँखों में जगहा तो दो।
अनभल जाएंगे पांव तेरे पहले सतह तो दो।
जन्म लेना, मर जाना, नियति है संसार की,
सोचा कभी, क्या वजह थी? तेरे अवतार की,
मिट्टी हो जाएगी सोना, तुम स्पर्श तो करो।
कर रही इंतजार मंजिल, तुम संघर्ष तो करो।


32. सालों बाद आज,
बहुत सालों बाद,
एक बार फिर,
मुझे अपनी कविताओं की याद आई,
और मैं लगा पलटने,
अपनी पुस्तक के पन्ने,
पन्नों से निकल-निकल कविताएँ,
मेरी कृतियाँ,
लगी कसने फब्तियां,
कहो कवि,
कैसे हो? क्यों आई फिर हमारी याद,
इतने सालों के बाद?
हमें कर पुस्तकबद्ध,
हो गए थे तुम निश्चिंत।


33. वक्त कितना लगता है,
दर्द को असहनीय बनने में,
वक्त कितना लगता है,
श्रेष्ट को कनीय बनने में,
अपनी जिंदगी से कभी,
मत हारना क्योंकि,
वक्त कितना लगता है,
सड़क छाप को माननीय बनने में,
वक्त कितना लगता है,
आशा को निराशा बनने में,
हमारी गलती है कि हम,
प्रयास छोड़ देते हैं वरना,
वक्त कितना लगता है,
अज्ञानता को जिज्ञासा बनने में,
वक्त कितना लगता है,
रिश्तों को टूट जाने में,
वक्त कितना लगता है,
अपनों से छूट जाने में,
वाकिफ सब हैं,
समाज के नियमों से मगर,
वक्त कितना लगता है,
समाज से दूर होने में।


34. शाश्वत नभ में ऊँची उड़ान का,
सपना मैंने संजोया था,
आसमान वीरान नहीं था,
कुछ लोगों से परिचय भी था,
पर चीलों की बस्ती में,
खुद को ही अकेला पाया था,
उत्तर गए, दक्षिण गए,
पूरब और पश्चिम भी गए,
अपने पुलकित पंखों को फैलाकर,
सारा जहाँ चहकाया था,
जीने की चाह में जीवन बीत चला,
अब अवशान की बेला आई,
सोच रही क्या खोया क्या पाया,
जो खोया वो मेरा ही कब था,
जो पाया मैंने कमाया था,
क्षोभ नहीं इस अनुभव का मुझको,
मैं जो भी हूँ घर हो आऊँ,
नभ पे बादल जो छाया है,
कल्पनाओं की महज उड़ान थी,
आँखें खुली, और ये क्या,
धुप निकल आया है।


35. वो दिन था बड़ा ही खास…,
जब मैं आई थी अपने माता-पिता के घर बनकर उल्लास,
खुशी से अपनाया था दोनों ने अपनी बेटी को,
फिर क्यूँ था गम, मेरे जन्म पर इस समाज को,
क्यों इस समाज के आँखों में खटकी थी मैं,
आखिर क्यों इस समाज को बोझ सी लगी थी मैं,
जबकि मैं तो थी अपने माता-पिता के लिए खुशियों की बहार,
क्यों इस संसार ने बेटियों के जन्म पर सबको डराया है।
क्यों मेरे जन्म पर मेरी माँ को दोषी ठहराया है,
क्यों पहुंचा दिया गया मुझे और मेरी माँ के सपनों को शमशान,
क्यों न कर सके वो बेटे की जगह बेटी के जन्म पर अभिमान,
बेटे अगर होते हैं समाज की शान,
तो बेटियां भी होती हैं अपने कुल की शान,
वंश बढ़ाते हैं बेटे तो नाम रोशन करती हैं बेटियां,
माता-पिता के लिए तो बीटा हो या बेटी,
दोनों ही होते हैं उनके लिए आन, बान, शान,
फिर क्यों किया जाता है जन्म देने से इंकार बेटी को,
आखिर क्यों मार दिया जाता है गर्भ में ही बेटी को,
क्यों न इस मानसिकता को बदलकर, इस कुरूति खत्म करें हम,
बेटे-बेटी का भेद मिटाकर मानवता पर गर्व करें हम,
ताकि बेटियों को मिल सके सुरक्षित कल,
ताकि लिंग भेद से मुक्त हो आने वाला कल,
जिस दिन बेटी जन्म लेती है, वो दिन होता है बड़ा ही खास,
क्योंकि बीटा-बेटी दोनों हो होते हैं बहुत खास।


36. ये कैसा हुनर है तुम्हारा,
की बहते हुए को बचाकर,
सहारा देते हो,
और फिर बहा देते हो उसे,
उसी झरने में ये कहकर,
की वो इक नदी है,
और तुम फिर आओगे उससे मिलने,
उसका सागर बनकर,
फिर ये दूरियां खत्म हो जाएंगी,
ताउम्र के लिए,
नदी परेशान रही,
जलती रही, सूखती रही,
सागर की किस्मत में,
नदियाँ ही नदियाँ हैं,
उसे परवाह नहीं,
जो कोई नदी उस तक न पहुंचे,
और भी नदियाँ हैं,
उसकी हमसफर बनने को,
एक सदी बीत गई,
नदी के सब्र का बाँध,
आज टूट सा गया है,
नदी में बाढ़ आया है,
आज उसमें आवेग है, उत्साह है,
चली है मिलने अपने सागर से,
बहा ले गई अपना सब कुछ साथ,
नदी सागर तट पर आ चुकी है,
कितना कुछ जानना है, कहना है,
तभी सागर ने पूछा,
कहो कैसे आना हुआ,
जम गई वो ये सुनकर,
कुछ देर के लिए, पर,
अंदर की ग्लानि ने फिर से पिघला दिया,
नदी में मौन रहना ही ठीक जाना,
सागर के करीब से अपना रुख मोड़ लिया,
और सोच रही है, ऐसे मिलने से तो बेहतर था,
वो अंतहीन इंतजार, जो उसे अब भी रहेगा।


37. इंसानी दुनिया का दस्तूर भी क्या बताऊ यारों,
यहाँ तो अमीरों से रिश्ते बनाए जाते हैं,
और गरीबी से रिश्ते छिपाए जाते हैं,
इस दुनिया में अब ऐसे ही इंसानियत निभाई जाती है,
दूसरों को हंसाने के लिए नहीं, रुलाने के लिए मेहनत की जाती है,
अपनी जीत के लिए नहीं, दूसरों की हार के लिए मेहनत की जाती है,
यहाँ तो लोग जुदा हैं अपने ही वजूद से,
क्योंकि यहाँ लोग अपने आप से ज्यादा दूसरों में व्यस्त रहा करते हैं,
इस दुनिया में अब इंसानियत शर्मिंदा है,
यहाँ तो अपनों को छोड़ गैरों से रिश्ते निभाए जाते हैं,
अपनापन और प्यार कोई मायने नहीं रखता यहाँ,
यहाँ तो बस पैसों से रूप दिखाए जाते हैं,
भावनाओं का कोई मोल नहीं है आज-कल यहाँ,
यहाँ तो बस रूप रंग से रिश्ते बनाए जाते हैं,
यहाँ तो बस शर्तों पर रिश्ते बनाए जाते हैं,
रिश्तों का एहसास कहीं गम सा हो गया है यहाँ,
प्यार का वजूद कहीं दफन सा हो गया है यहाँ,
यहाँ तो बस रिश्ते मतलब से निभाए जाते हैं,
अपनों से नहीं पैसों से रिश्तेदारी निभाई जाती है,
इस दुनिया में इंसानियत अब ऐसे ही निभाई जाती है!
इस दुनिया में इंसानियत अब ऐसे ही निभाई जाती है!
इस दुनिया में इंसानियत अब ऐसे ही निभाई जाती है!


38. चलो-चलो साथी हिल-मिलकर, मनमोहन के धाम,
मुरली की मीठी धुन बाजे, जहाँ प्रेम अविराम।
गैया, पाहन और कदम्बे, सबकी जहाँ एक ही बोली,
छुपे जहाँ कण-कण में मोहन, खोजत सब ग्वालन की टोली।
जहाँ कृष्ण की शीतल छाया, बाकी जग है घाम,
चलो-चलो साथी हिलमिलकर, मनमोहन के धाम।
छलके जहाँ भक्ति रस ऐसे, मुरली की मीठी धुन जैसे,
जहाँ गोपियाँ प्रेम मगन हों, भव-बंधन छूटे न कैसे,
जहाँ रचाते हर पल कोई, लीला मोरे श्याम,
चलो-चलो साथी हिलमिलकर, मनमोहन के धाम।


39. बहनों से अच्छा नहीं हूँ,
ये पता है मुझे,
पर इतना नकारा भी नहीं,
जितना नकारा स्म्झाहाई सबने मुझे,
मेरे दर्द को भी कोई सुने, कुछ कहना चाहता हूँ मैं,
पिताजी व्यस्त हैं, घर चलाने में,
माँ व्यस्त है घर संभालने में,
मैं किसी से कुछ नहीं कह पाता,
पर मैं चाहता हूँ कोई मुझे भी समझे,
थोड़ी देर कोई मेरी बात भी सुने,
बहनों के शादी की चिंता मुझे भी खूब सताती है,
कई बार मेरी रातों की नींद भी उड़ जाती है,
जब माँ के पसंद की चीजें नहीं ला पाता हूँ,
तो सच मानिए अपने जीवन को व्यर्थ पाता हूँ,
पर ये दर्द मैं किसी से कह नहीं पाता हूँ,
पिताजी के जूते अब मेरे पैरों में आ जाते हैं,
खुश होने से ज्यादा मैं छुप-छुपकर रोता हूँ,
क्योंकि पिताजी के बराबर का हो गया हूँ मैं,
पर फिर भी आज भी पिताजी ही कमाने जाते हैं,
मेरे दर्द को भी कोई सुने,
अपने आप को सबसे हारा हुआ पाता हूँ मैं,
कोई मेरा भी दर्द सुने, कुछ कहना चाहता हूँ मैं,
बेटियों से कम नहीं हूँ मैं, जिम्मेदारियां निभाने में,
बहनों का ख्याल रखने वाला प्यारा भाई हूँ मैं,
माँ-पिता के कंधों के बोझ को कम करने वाला बीटा हूँ मैं,
सबसे अलग… सबसे अनूठा हूँ मैं, क्योंकि बेटा हूँ मैं,


40. आसमान की बाहों में,
प्यारा सा वो चाँद,
न जाने मुझे क्यों मेरे,
साथी सा लग रहा है,
खामोश है वो भी,
खामोश हूँ मैं भी,
सहमा है वो भी,
सहमी हूँ मैं भी,
कुछ दाग उसके सीने पर,
कुछ दाग मेरे सीने पर,
जल रहा है वो भी,
जल रही हूँ मैं भी,
कुछ बादल उसे ढंके हुए,
और कुछ मुझे भी,
सारी रात वो जागा है,
और साथ में मैं भी,
मेरे अस्तित्व में शामिल है वो,
सुख में और दुःख में भी,
फिर भी वो आसमां का चाँद है,
और मैं… जमी की हया!


41. माँ की ममता ईश्वर का वरदान है,
सच पूछो तो माँ, इंसान नहीं भगवान है,
माँ के चरणों में जन्नत का हर रूप होता है,
माँ में ही ईश्वर का हर स्वरूप होता है,
माँ, जो हर बच्चे के दिल की चाह होती है,
मुसीबत में एक नई राह होती है,
जो हर किसी के करीब नहीं होती,
जो हर किसी को नसीब नहीं होती,
माँ की एहमियत उनसे पूछो जिनकी माँ नहीं होती है,
जो हर बच्चे की जान होती है,
जो हर रिश्ते का मान होती है,
सभी का एकमात्र अरमान होती है,
हर किसी को माँ की ममता मिले, अपनी माँ से,
कभी कोई न बिछड़े अपनी माँ से,
यही है मेरी एकमात्र दुआ उस खुदा से,
जिनकी माँ हो, उसे क्या पता कि माँ क्या होती है,
माँ को जानना है तो उनसे पूछो जिनकी माँ नहीं होती है।


42. ये हल्की-हल्की बूंदे, फिर मेरे को छूने को आ गई,
ये नाचती बहती हवाएं, ये मस्त फिजाएं,
तभी मेरे आँख खुला नहीं था, न सूरज उठा था,
लेकिन एहसास आ गई, की तुम आ गई,
मन को खींच लिया तेरी पायल की चम-चम आवाज,
जो कानों में गूंजे और लगे बहुत खास,
और ले आई हे चेहक पंछियों की,
बंजर जमीन को साँस देती हुई,
ये बूंदे जगाए दिल में चाहत,
ये बूंदे दे जिंदगी को राहत,
आए जो ये मौसम सुहाना।


43. शोर इतना है यहाँ कि खुद की आवाज दब जाती है,
धुंध इतनी है कि कुछ भी नजर नहीं आता।
चकाचौंध में दफन है तारे और चंद्रमा भी,
पहले पता होता कि शहर ऐसा होता है…
तो मैं भूलकर भी कभी शहर नहीं आता।
खलल इतना है यहाँ दिखावे और बनावटों का,
रोना भी चाहूँ तो आँखों से आंसू नहीं आता।
कोई माँ तो कोई मासुक की यादों में डूब जाता है,
आकर सोचता है काश! वो शहर नहीं आता।
इतनी भीड़ है कि खुद को भी पहचानना मुश्किल है,
सोचता हूँ कि आईना बनाया क्यूँ है जाता।
बदनसीब ही था वो कि गांवों में भूख न मिट सकी,
पेट की जद में न होता तो शहर नहीं आता।
वक्त इतना भी नहीं कि कभी खुलकर हंस लूँ,
ठोकरें लगती है तो खुद को संभाला नहीं जाता।
तन्हाई और दर्द की दास्तां से भरी पड़ी है शहर,
पहले जान जाता ये सब तो मैं शहर कभी नहीं आता।
रक्त और स्वेद में यहाँ फर्क नहीं है कोई,
शहर में रहकर भी शहर कोई जान नहीं पाता।
ऐसा लगता है सब जानकर अनजान बनते हैं,
ऐसे नासमझ शहर में मैं कभी नहीं आता।


44. पता नहीं क्यूँ मैं अलग खड़ा हूँ दुनिया से,
अपने सपनो को ढूंढ़ता विमुख हुआ हूँ दुनिया से।
पता नहीं क्यूँ मैं इस दुनिया से अलग हूँ,
मगर मैं सोचता हूँ कि दुनिया मुझमे अलग है।
पता नहीं क्यूँ अब ताने सुन कष्ट नहीं होता,
पता नहीं क्यूँ अब तानों का असर नहीं होता।
पता नहीं क्यूँ लोगों को है मुझसे है शिकायत,
पता नहीं क्यूँ बिना बात के दे रहे हैं हिदायत।
पता नहीं क्यूँ लोगों की सोच है इतनी निर्मम,
पता नहीं क्यूँ इस दुनिया की डगर है इतनी दुर्गम।


45. कभी गम, तो कभी खुशी है जिंदगी,
कभी धूप, तो कभी छांव है जिंदगी…
विधाता ने जो दिया, वो अद्भुत उपहार है जिंदगी,
कुदरत ने जो धरती पर बिखेरा वो प्यार है जिंदगी…
जिससे हर रोज नए-नए सबक मिलते हैं,
यथार्थों का अनुभव करने वाली ऐसी कड़ी है जिंदगी…
जिसे कोई न समझ सके ऐसी पहेली है जिंदगी,
कभी तन्हाईयों में हमारी शेली है जिंदगी…
अपने-अपने कर्मों के आधार पर मिलती है ये जिंदगी,
कभी सपनों की भीड़, तो कभी अकेली है जिंदगी…
जो समय के साथ बदलती रहे, वो संस्कृति है जिंदगी,
खट्टी-मीठी यादों की स्मृति है जिंदगी…
कोई न जानकर भी जान लेता है सबकुछ, ऐसी है जिंदगी,
तो किसी के लिए उलझी हुई पहले है जिंदगी…
जो हर पल नदी की तरह बहती रहे ऐसी है जिंदगी,
जो पल-पल चलती रहे, ऐसी ही है जिंदगी…
कोई हर परिस्थिति में रो-रोकर गुजारता है जिंदगी,
तो किसी के लिए गम में भी मुस्कुराने का हौसला है जिंदगी…
कभी उगता सूरज, तो कभी अँधेरी निशा है जिंदगी,
ईश्वर का दिया, माँ से मिला अनमोल उपहार है जिंदगी…
तो तुम यूहीं न बिताओ अपनी जिंदगी…
दूसरों से हटकर तुम बनाओ अपनी जिंदगी,
दुनिया की शोर में न खो जाए ये तेरी जिंदगी…
जिंदगी भी तुम्हें देखकर मुस्कुराए, तुम ऐसी बनाओ ये जिंदगी।


46. जब भास्कर आते हैं खुशियों का दीप जलाते हैं,
जब भास्कर आते है अंधकार भगाते हैं।
जब सारथी अरुण क्रोध से लाल आता,
तब सारा विश्व खुशियों से नहाता।
वह लोगों को प्रहरी की भांति जगाए,
लोगों के मन में खुशियों का दीप जलाए।
जब सारा विश्व सो रहा होता है,
वह दुनिया को जगा रहा होता है।
उसके तेज से है सभी घबराते,
उसके आगे कोई टिक नहीं पाते।
उसके आने से होता है खुशियों में संचार,
उसके चले जाने से हो जाता अंधकार।
उसके चले जाने से दुनिया होती है निर्जन,
उसके आ जाने से धन्य होता जन-जन।
यदि शुर्य नहीं होता यह शोच के हम घबराते,
बिना शुर्य के प्रकाश के हम रह नहीं पाते।
शुर्य के आने से अंधकार घबराता,
उसके तेज के सामने वह टिक नहीं पाता।
इनके आने से होता धन्य-धन्य इंसान,
सभी उन्हें मानते हैं भगवान।
जब हिमालय पर आती उनकी लाली,
उनके आ जाने से हिम भी घबराती।
इनके आ जाने से जीवन में होता संचार,
आने से इनके होता प्रकाशमान संसार।


47. अपने देश के लिए कुछ कर पा रहा हूँ मैं,
क्योंकि सरहद पर दीवाली मना रहा हूँ मैं।
तुम सब सो जाओ चैन से, देश को नुकसान नहीं पहुंचा पाएगा कोई,
क्योंकि सरहद पर दीवाली मना रहा हूँ मैं।
मेरी चिंता मत करो माँ! मैं खुश हूँ तुम सबको खुश देखकर,
क्योंकि सरहद पर दीवाली मना रहा हूँ मैं।
मेरी चिंता मत करो पापा! मैं देश को नुकसान नहीं पहुंचने दूंगा,
क्योंकि सरहद पर दीवाली मना रहा हूँ मैं।
मेरे प्यारे बच्चों तुम हमेशा मुस्कुराओ! और धूम-धाम से दीवाली मनाओ,
क्योंकि सरहद पर दीवाली मना रहा हूँ मैं।
मैं भारत माँ के इस आंचल को उजड़ने नहीं दूंगा,
क्योंकि सरहद पर दीवाली मना रहा हूँ मैं।
इस दीवाली भी खुशियों से महकेगा मेरा देश,
क्योंकि सरहद पर दीवाली मना रहा हूँ मैं।
किसी आतंकी को सफल मैं होने नहीं दूंगा,
क्योंकि सरहद पर दीवाली मना रहा हूँ मैं।
दुश्मनों के नापाक इरादों को थामे बैठा हूँ मैं,
क्यों भारत माँ का वीर सैनिक हूँ मैं,
मेरे प्यारे देश वासियों तुम सब हमेशा खुश रहो,
मेरे प्यारे देश वासियों तुम सब हर त्यौहार धूम-धाम से मनाओ,
क्योंकि सरहद पर दीवाली मना रहा हूँ मैं।
क्योंकि सरहद पर दीवाली मना रहा हूँ मैं।
क्योंकि भारत का का वीर सैनिक हूँ मैं…


48. होती है रात, होता है दिन,
पर न होते एकसाथ दोनों,
प्रकृति में, मगर होती है,
कही अजब है यही।
और कहीं नहीं यारों,
होती है हमारी जिंदगी में,
रात ही रह जाती है अक्सर,
दिन को दूर भगाकर।
एक के बाद एक नहीं,
बदलाव निश्चित नहीं,
लगता सिर्फ में नहीं सोचती यह,
लगता पूरी दुनिया सोचती है।
इसलिए तो प्रकृति को करते बर्बाद,
क्योंकि जलते है प्रकृति माँ से,
प्रकृति माँ की आँखों से आती आरजू,
जो रुकने का नाम नहीं ले रही है।
जो हम सब से कह रहे हैं,
अगर तुम मुझसे कुछ लेना चाहो,
तो खुशी-खुशी ले लो,
मगर जितना चाहे उतना ही ले लो।
यह पेड़-पौधे, जल, मिट्टी, वन सब,
तेरी रह मेरी ही संतान हैं,
अपने भाईयों को चैन से जीने दो,
गले लगाओ सादगी को मत बनो मतलबी।
लेकिन कौन सुननेवाला है यह?
कौन हमारी माँ की आंसू पोछ सकते हैं?


49. टिक न सके इसके आगे, बड़े से बड़ा धनवान…
समय बीत जाने पर, तुम बहुत पछताओगे,
इतना अच्छा समय भला, तुम दुबारा कब पाओगे,
समय बीत जाने पर इंसान बहुत पछताता है…
व्यर्थ बिताया गया समय, भला कौन कहाँ कब पाता है,
जो नहीं पहचानते हैं समय का मोल…
कर नहीं पाते कोई भी अच्छा काम,
नहीं कर पाते वो जग में ऊँचा अपना नाम…
अगर जीवन में कुछ करना है…
सबसे आगे बढ़ना है तो, समय के महत्व को पहचानो,
और बढाओ और अपना मान…
समय नहीं रुकता,
हर कोई प्रतीक्षा करता है, पर समय इंतजार नहीं करता है भाई,
चूका हुआ समय कभी वापस नहीं आता है भाई,
जो समय को बर्बाद करते हैं, उनका जीवन हो जाता है दुखदाई,
जो छात्र इससे चूक जाते हैं, वे बहुत पछताते हैं भाई,
जो कृषक इसे चूक जाते हैं, बे भूखे मरते हैं भाई,
जो नरपति इसे चूक जाते हैं, वे भिखमंगे होते हैं भाई,
जो नहीं चुकते हैं इसको, वे ही खुश होते हैं भाई,
समय का उपयोग करने वाले, कमल कर जाते हैं भाई,
जो गरीब इसका उपयोग करते हैं, वे आमिर बन जाते हैं भाई,
जो छात्र इसको नहीं चूकते हैं, वे सफलता की नई कहानी लिखते हैं भाई,
जो कृषक इसको नहीं चूकते हैं, अन्न से उनके घर भर जाते हैं भाई,
जिनको जीवन की रीत पता है, वे कभी अपना समय नहीं गंवाते हैं भाई,
इसलिए याद रखो… हर कोई प्रतीक्षा करता है, लेकिन समय इंतजार नहीं करता है भाई।


50. नदियों के बहाव को रोका और उन पर बाँध बना डाले,
जगह-जगह बहती धाराएँ अब बन के रह गई हैं गंदे नाले,
जब धाराएँ सुकड़ गई तो उन सब की धरती कब्जा ली,
सीनों पर फिर भवन बन गए छोड़ा नहीं कुछ भी खली,
अच्छी वर्षा जब भी होती है पानी बांधों से जोड़ा जाता है,
वो ही तो फिर धरा के सीनों पर भवनों में घुस जाता है,
इसे प्राकृतिक आपदा कहकर सब बाढ़-बाढ़ चिल्लाते हैं,
मिडिया, अफसर, नेता मिलकर तब रोटियां खूब पकाते हैं।


51. मिट्टी से जन्मा हे फूल! तू कहाँ जा रहा है,
हे मित्र, मैं प्रभु के चरणों में सजने जा रहा हूँ,
कभी मैं किसी सुन्दरी के गजरे में सजने जा रहा हूँ,
तो कभी मैं किसी नेता का सत्कार करने जा रहा हूँ,
तो कभी मृत्यूशैया में श्रद्धांजलि बनने जा रहा हूँ,
मेरा जीवन तो यही है मित्र,
मिटटी से जन्मा हूँ और मिट्टी में ही मिलने जा रहा हूँ।


52. सबका पालन करने वाली,
सबको भोजन देने वाली,
मेघा सब बरसाने वाली,
धूप को दर्शाने वाली,
चाँद सूरज दिखाने वाली,
धरती को घुमाने वाली,
जीव-जन्तु बनाने वाली,
खेत में फसल उगाने वाली,
ठंडी हवा चलाने वाली,
बादल को गरजाने वाली,
धरती को कंपाने वाली,
प्रकृति है सब करने वाली।


53. मैं पानी की बूंद हूँ छोटी,
मैं तेरी प्यास बुझाऊँ।
पि लेगा यदि तू मुझको,
मैं तुझको तृप्त कराऊँ।
मैं छोटी सी बूंद हूँ,
फिर क्यों न पहचाने?
तू जाने न सही मगर,
किस्मत मेरी ऊपर वाला जाने।
मैं पानी की बूंद हूँ छोटी,
फिर क्यों खोटी मुझको माने?
भटकता फिर रहा है तू,
और क्यों अनजान है तू?
तेरी महिमा मैं तो समझूं न,
जाने तो ऊपर वाला जाने।
मैं पानी की तुच्छ बूंद हूँ,
फिर मेरी महत्ता क्यों न जाने?
जीवन रूपी इस पथ पर,
तुझे अकेले चलना है।
मैं भी चलूं तेरे साथ-साथ,
और मुझे क्या करना है?
तू पी अपनी प्यास बुझा,
हमें गम नहीं है कुछ भी।
काम ही मेरा और क्या है?
केवल मुझे सिमटकर चलना है।
अस्तित्व ही यह मेरा है,
मुझे तुझमें रह जाना है,
मैं पानी की बूंद हूँ छोटी,
फिर हालातों को क्यों न तुम पहचानो?
तेरे सहारे मुझसे है,
और मेरा सहारा तुझसे।
तू तो मुझ पर आश्रित है,
और सब मेरे दीवाने।
तू मर जाएगा मेरे बिन,
फिर क्यों न मुझको पहचाने?
मैं पानी की बूंद हूँ छोटी,
फिर क्यों तुम व्यर्थ बितराओ?
बूंद-बूंद से घड़ा भरा है,
क्यों तुम ऐसा न कर पाओ?
यदि रखोगे सुरक्षित तुम मुझको,
मैं तो सागर बन जाऊं।
अगर करोगे न तुम ऐसा,
तो मैं तुच्छ बूंद भी न रह पाऊं।
मैं पानी की बूंद हूँ छोटी,
मैं तेरी प्यास बुझाऊं।


54. प्रकृति की है छवि निराले,
क्षण-क्षण अपना दुखड़ा बदले,
तपती सूरज की किरणों से,
धरती के तन को दहकाए,
गरम हवा से सागर का जल,
भाप बन उड़-उड़ जाए,
उमड़-घुमड़ कर बादल बनते,
तड़-तड़-तड़ बिजिल चमकाते,
काले-काले नभ के बादल,
छम-छम-छम बरसा करते,
वर्षा धरती की प्यास बुझाती,
चारों ओर हरियाली छाती,
तरह-तरह के हम सब्जी पाते,
फल-फूलों से घर भर जाते,
पृथ्वी जब थर्राती जाड़े से,
सूरज की किरने उसे बचाती,
घर बगिया में बिखर-बिखर,
खेतों में वो फसल पकाती,
सौरभ की शीतल छाया में,
चंचल पग से धरती पर चलती।


55. मेरी आत्मा हो तुम, परमात्मा भी तुम हो,
आराधना हो मेरी, अराध्या भी हो तुम,
तेरे विस्तार में ही हमारे प्राण है,
नाना रूप तेरे नैनों में बसे हैं,
तेरे बीच रहकर ही सारी जनमना हैं,
ऋतुओं की तू महामना हैं,
तेरी गोद में पलकर हम बड़े हुए,
तेरी हवाओं से हमारी साँस चलें,
फिर भी न जाने मानव क्यों न समझे,
तुझे ही बर्बाद करने पर तुले हुए,
तुम सौम्य हो शालीन हो,
अनुपम छठा की कला काष्ठा हो,
प्रचंड रूप जिसन तेरा देखा,
बर्बरता की पराकाष्ठा हो,
बारिश की बूंदें जब झरती,
धरती दुल्हन बन सज जाती,
कवि ह्रदय पुलकित हो जाता,
तरुपल्लव सब शीश झुकाता,
वसंत ऋतू जब आ जातें,
भक्ति का उमंग जगाते,
चहुँ प्रहर सुवासित हो जाते,
धुप दीप नैवेद्य सजाते,
पावस ऋतू झलमल करती,
पर्वत रानी हिम से ढक जाती,
श्वेत शीतल पवन बह चलती,
पर्यटकों को खूब लुभाती।


56. सावन का महिना ज्यों-ज्यों ही पास आता है,
उमस भरा मौसम सकल लोगों को सताता है,
गोरियां राहत के लिए जो उपाय अपनाती हैं,
उससे तो सावन में उमंगों की बहार आती है,
झूलों का पड़ जाना मेरा एक निरा बहाना है,
असल खेल तो खुद को तपिश से बचाना है,
मेहँदी के लाल रंग जब हाथों में लग जाते हैं,
उबलते बदनों को वो ठंडी राहत दिलाते हैं,
झूलों के करम से सब पीडाएं जब मिटती हैं,
सजना से मिलन को फिर हूक सी उठती है,
इशारों में गा-गाकर जो मन के भेद बताते हैं,
वही सब तो सावन के मधुर गीत कहलाते हैं,
गोरी के मायके से मिठाईयां जो भी आती हैं,
वो भी तो पाक मिलन की खुशियाँ मनाती हैं।


57. जरूरी नही है फरिश्ता होना,
इंसा का काफी है इंसा होना।
हकीकत जमाने को अब रास नहीं आती,
एक गुनाह सा हो गया है आईना होना।
बाद में तो… कारवां बनते जाते है,
बहुत मुश्किल है लेकिन पहला होना।
हवाओं के थपेड़े झेलने पड़ते हैं, उंचाईयों पे,
तुम खेल समझ रहे हो परिंदा होना।
ये लोग जीते जी मरे जा रहे हैं,
मैं चाहता हूँ मौत से पहले जिंदा होना।
अपनी गलतियों पे भी नजरें झुकती नहीं अब,
लोग भूलने लगे हैं शर्मिंदा होना।
हर्फे मोहब्बत, पढ़ा हमने भी था “मोहन”, देखा भी था,
वफा होना, खफा होना, जफा होना, जुदा होना।


58. वही छत वही बिस्तर…,
वही अपने सारे हैं…।
चाँद भी वही तारे भी वही…,
वही आसमां के नजारे हैं…।
बस नहीं तो वो जिंदगी…,
जो बचपन में जिया करते थे…।
वही सड़कें वही गलियाँ…,
वही मकान सारे हैं…।
खेत वही खलिहान वही…,
बगीचों के वही नजारे हैं…।
बस नहीं टी वो जिंदगी…,
जो बचपन में जिया करते थे…।


59. पके हुए बादलों पर वो नाचती लकीरे,
और भुनी हुई मिट्टी का महकना धीरे-धीरे,
पानी का बोझ ढोते-ढोते ठक्कर थम जाना,
ठहाकों के कोलाहल से थरोकर सहम जाना,
गोलमटोल बूंदों का गिरना आसमान से छूटकर,
और नंगे पांव आंगन में फिर उछलना फूटकर,
जमी तिलमिलाहट का वो पल में पिघल जाना,
बेजान सी गर्मी का फिर खुशी में ढल जाना,
नई नवेली बारिश का वो मीठा-मीठा पानी,
साथ वो हो या उन की याद, हो जाए रोमानी।


60. अलि, मैं कण-कण को जान चली,
अलि, मैं कण-कण को जान चली,
सबका क्रंदन पहचान चली।
जो दृग में हीरक-जल भरते,
जो चितवन इंद्रधनुष करते,
टूटे सपनों के मनकों से,
जो सुखे अधरों पर झरते।
जिस मुक्ताहल में मेघ भरे,
जो तारों के तृण में उतरे,
मैं नभ के रज के रस-विष के,
आंसू के सब रंग जान चली।
जिसका मीठा-तीखा दंश न,
अंगों में भरता सुख-सिहरन,
जो पग में चुभकर, कर देता,
जर्जर मानस, चिर आहत मन।
जो मृदु फूलों से स्पंदन से,
जो पैना एकाकीपन से,
मैं उपवन निर्जन पथ के हर,
कंटक का मृदु मन जान चली।
गति का दे चिर वरदान चली,
जो जल में विद्युत-प्यास भरा,
जो आतप में जल-जल निखर,
जो झरते फूलों पर देता,
निज चंदन सी ममता बिखरा।
जो आंसू में धुल-धुल उजला,
जो निष्ठुर चरणों का कुचला,
मैं मरु उर्वर में कसक भरे,
अणु-अणु का कंपन जान चली,
प्रति पग को कर लयवान चली।
नभ मेरा सपना स्वर्ण रजत,
जग संगी अपना चिर विस्मित,
यह शूल-फूलकर चिर नूतन,
पथ, मेरी साधों से निर्मित।
इन आँखों के रस से गीली,
रज भी है दिल से गर्वीली,
मैं सुख से चंचल दुःख-बोझिल,
क्षण-क्षण का जीवन जान चली,
मिटने को कर निर्माण चली।


61. सजल है कितना सवेरा,
गहन तम में जो कथा इसकी न भूला,
अश्रु उस नभ के, चढ़ा शिर फूल फूला,
झूम-झुक-झुक कह रहा हर श्वास तेरा,
रख से अंगार तारे झर चले हैं,
धूप बंदी रंग के निर्झर खुले हैं,
खोलता है पंख रूपों में अँधेरा,
कल्पना निज देखकर साकार होते,
और उसमें प्राण का संचार होते,
सो गया रख तूलिका दीपक चितेरा,
अलस पलकों से पता अपना मिटाकर,
मृदुल तिनकों में व्यथा अपनी छिपाकर,
नयन छोड़े स्वप्न ने खग ने बसेरा,
ले उषा ने किरण अक्षत हास रोली,
रात अंकों से पराजय राख धो ली,
राग ने फिर साँस का संसार घेरा,


62. सृजन के विधाता! कहो आज कैसे,
कुशल उँगलियों की प्रथा तोड़ दोगे?
अमर शिल्प अपना बना तोड़ दोगे?
युगों में गढ़े थे धवल-श्याम बादल,
न सपने कभी बिजलियों ने उगाए,
युगों में रची साँझ लाली उषा की,
न पर कल्पना-बिम्ब उनमें समाए,
बनाए तभी तो नयन दो मनुज के,
जहाँ कल्पना-स्वप्न न प्राण पाए!
हँसी में खिली धूप में चांदनी भी,
दृगों में जले दीप में मेघ छाए!
मनुज की महाप्राणता तोड़कर तुम,
अजर खंड इसके कहाँ जोड़ दोगे?
बनाए गगन और ज्योतिष्क कितने,
बिना श्वास पाषाण ही की कथा है,
युगों में बनाए भरे सात सागर,
तृषित के लिए घूंट भी चिर कथा है!
कुलिश-फूल दोनों मिलाकर तुम्ही ने,
गढ़ी नींद में थी कभी एक झांकी,
सजग हो तराशा किए मूर्ति अपनी,
कठिन और कोमल सरल और बांकी!
लिए शिव चली जो अथक प्राण गंगा,
इसे किस मरण सिन्धु में मोड़ दोगे?
बने हैं भले देव मंदिर अनेकों,
सभी के लिए एक यह देवता है,
स्वंय तुम रहे हो सदा आवरण में,
इसी में उजागर तुम्हारा पता है!
सदा अधबनी मूर्ति देती चुनौती,
इसी को कलशदीप्त मंदिर मिलेगा,
न ध्वनि शंख की है, न पूजन न वंदन,
गहन अंध तम में न दीपक जलेगा!
सृजन के विधाता इसी शून्य में क्या,
मनुज देवता अधबना छोड़ दोगे?
कुशल उँगलियों की प्रथा तोड़ दोगे?
अमर शिल्प अपना बना तोड़ दोगे?


63. अंतर्धान हुआ फिर देव विचर धरती पर,
स्वर्ग रुधिर से मृत्युलोक की रज को रंगकर!
टूट गया तारा, अंतिम आभा का दे वर,
जीर्ण जाति मन के खंडहर का अंधकार हर!
अंतर्मुख हो गई चेतना दिव्य अनामय,
मानस लहरों पर शतदल सी हंस ज्योतिर्मय!
मनुजों में मिल गया आज मनुजों का मानव,
चिर पुराण को बना आत्मबल से चिर अभिनव!
आओ, हम उसको श्रद्धांजलि दें देवोचित,
जीवन सुंदरता का घट मृत को कर अर्पित,
मंगलप्रद हो देवमृत्यु यह ह्रदय विदारक,
नव भारत हो बापू का चिर जीवित स्मारक!
बापू की चेतना बने पिक का नव कूजन,
बापू की चेतना वसंत बखेरे नूतन!


64. प्रकृति हमारी कितनी प्यारी,
सबसे अलग और सबसे न्यारी,
देती है वो सबको सीख,
समझे जो उसे नजदीक,
पेड़-पौधे, नदी, पहाड़,
बनाए सुंदर ये संसार,
पेड़ पर लगे विभिन्न पत्ते,
सिखाते हमें रहना एक साथ,
पेड़ की जिंदगी जड़ों पर टिकी है,
मनुष्य की जिंदगी सत्कर्मों पर टिकी है,
आसमान है ये विशाल अनंत,
मनुष्य की सोच का भी न है अंत,
हे मनुष्य! समझो ये बातें सारी,
प्रकृति हमारी कितनी प्यारी,
सबसे अलग और सबसे न्यारी,
बूंद-बूंद से बनती है नदी,
एक सोच से बदले ये सदी,
मनुष्य करता है भेदभाव,
जाने न प्रकृति का स्वभाव,
सबको होती है प्रकृति नसीब हो अमीर या हो गरीब,
मनुष्य की तरह न परखें,
है अमीर या है गरीब,
पेड़ सहता है बढ़ को, लेकर पृथ्वी का सहारा,
मनुष्य सह सके बढ़ को, यदि सब खड़े हो लेकर एक-दूसरे का सहारा,
करे जो प्रकृति को नाश,
होता है उसका विनाश,
मनुष्य जिए और जीने दे,
मिलकर रहे सब एक साथ,
परखो भैया यह बातें सारी,
प्रकृति हमारी कितनी प्यारी,
सबसे अलग और सबसे न्यारी।


65. प्रकृति ने अच्छा दृश्य रचा,
इसका उपभोग करें मानव।
प्रकृति के नियमों का उल्लंघन करके,
हम क्यों बन रहे हैं दानव।
ऊँचे वृक्ष घने जंगल ये,
सब हैं प्रकृति के वरदान।
इसे नष्ट करने के लिए,
तत्पर खड़ा है क्यों इंसान।
इस धरती ने सोना उगला,
उगलें हैं हीरों की खान,
इसे नष्ट करने के लिए,
तत्पर खड़ा है क्यों इंसान।
धरती हमारी माता है,
हमें कहते हैं वेद पुराण,
इसे नष्ट करने के लिए,
तत्पर खड़ा है क्यों इंसान।
हमने अपने कर्मों से,
हरियाली को कर डाला शमशान,
इसे नष्ट करने के लिए,
तत्पर खड़ा है क्यों इंसान।


66. देखो, प्रकृति भी कुछ कहती है…
समेट लेती है सबको खुद में,
कई संदेश देती है,
चिड़ियों की चहचाहहट से,
नव भोर का स्वागत करती है,
राम-राम अभिवादन कर,
आशीष सबको दिलाती है,
सूरज की किरणों से,
नव उमंग सब में,
भर देती है,
देखो, प्रकृति कुछ कहती है…
आतप में स्वेद बहाकर,
परिश्रम करने को कहती है,
शीतल हवा के झोंके से,
ठंडकता भर देती है,
वट वृक्षों की छाया में,
विश्राम करने को कहती है,
देखो, प्रकृति भी कुछ कहती है…
मयूर नृत्य से रोमांचित कर,
कोयल का गीत सुनाती है,
मधुर फलों का सुस्वाद लेकर,
आत्म तृप्त कर देती है,
साँझ तले गोधूलि बेला में,
घर जाने को कहती है,
देखो, प्रकृति भी कुछ कहती है…
संध्या आरती करवाकर,
ईश वंदना करवाती है,
छुपते सूरज को नमन कर,
चाँद का आतिथ्य करती है,
टिमटिमाते तारों के साथ,
अठखेलियाँ करने को कहती है,
रजनी के संग विश्राम करने,
चुपके से सो जाती है,
देखो, प्रकृति भी कुछ कहती…।


67. झरने लगे नीम के पत्ते बढने लगी उदासी मन की,
उड़ने लगी बुझे खेतों से,
झुर-झुर सरसों की रंगीनी,
धूसर धूप हुई मन पर ज्यों-,
सुधियों की चादर अनबीनी,
दिन के इस सुनसान पहर में रुक-सी गई प्रगति जीवन की।
साँस रोककर खड़े हो गए,
लुटे-लुटे से शीशम उन्मन,
चिलबिल की नंगी बाहों में,
भरने लगा एक खोयापन,
बड़ी हो गई कटु कानों को “चुर-मुर” ध्वनि बांसों के बन की।
थककर ठहर गई दुपहरिया,
रुक कर सहम गई चौबाई,
आँखों के इस वीराने में..
और चमकने लगी रुखाई,
पान, आ गए दर्दीले दिन, बीत गयी रातें ठिठुरन की।


68. असलता की सी लता,
किन्तु कोमलता की वह कलि,
सखी नीरवता के कंधे पर डाले बांह,
छांह सी अंवर-पथ से चली।
नहीं बजती उसके हाथों में कोई वीणा,
नहीं होता कोई अनुराग राग आलाप,
नृपुरों में भी रुनझुन-रुनझुन नहीं,
सिर्फ एक अव्यक्त शब्द-सा “चुप, चुप, चुप”,
है गूंज रहा सब कहीं-


69. नेचर और कल्चर क्लब के,
क्या कहने यार।
लाई नई उमंग,
और खुशियों की बहार।
योग थेरपी ने दिया,
फिटनेस का गुरुमंत्र।
साँस लेने-छोड़ने में भी,
छिपा है अनोखा तंत्र।
हेल्थ क्लब और स्पोर्ट्स भी,
स्ट्रेस भगाए दूर।
तंदरुस्त तन तो तंदरुस्त मन,
यही है सफल जीवन का दस्तूर।
रेडियो अक्ट्रेक ने हर दवार पर,
दुनिया की खबरें पहुंचाई।
पेरांट भी खुश हुए,
उनके हुनर ने आवाज पाई।
फिल्म शो, चिल्ड्रन्स डे में,
आपसी भेद-भाव भूलें।
नाच-गाने का कमाल दिखाते,
गले मिल गए गले।
आँखों में पढ़ना, दिल की भावना,
एन०सी०सी० के उद्देश्य महान।
गूंज रही है-एक आवाज,
यही है अपना अक्ट्रेक की जान।


70. कौन सिखाता है चिड़ियों को,
चीं-चीं, चीं-चीं करना?
कौन सिखाता फुदक-फुदक कर,
उनको चलना-फिरना?
कौन सिखाता फुर से उड़ना,
दाने चुग-चुग खाना?
कौन सिखाता तिनके ला-ला,
कर घोंसले बनाना?
कौन सिखाता है बच्चों का,
लालन-पालन उनको?
माँ का प्यार, दुलार, चौकसी,
कौन सिखाता उनको?
कुदरत का यह खेल,
वही हम सबको, सब कुछ देती।
किन्तु नहीं बदले में हमसे,
वह कुछ भी है लेती।
हम सब उसके अंश,
कि जैसे तरु-पशु-पक्षी सारे।
हम सब उसके वंशज,
जैसे सूरज-चाँद-सितारे।


71. झकोर-झकोर धोती रही,
संवराई संध्या,
पश्चिमी घाट के लहराते जल में,
अपने गैरिक वसन,
फैला दिए क्षितिज की अरगनी पर,
और उतर गई गहरे,
ताल के जल में,
डूब-डूब, मल-मल नहाएगी रात भर,
बड़े भोर निकलेगी जल से,
उजले-निखरे स्निग्ध तन से झरते,
जल-सीकर घासों पर बिखेरती,
ताने लगते पंछियों की छेड़ से लजाती,
दोनों बाहें तन पर लपेट,
सद्य-स्नात सौंदर्य समेट,
पूरब की अरगनी से उतार उजले वस्त्र हो जाएगी झट,
क्षितिज की ओट!


72. अगर पेड़ भी चलते होते,
कितने मजे हमारे होते।
बाँध तने से उसके रस्सी,
चाहे जहाँ कहीं ले जाते।
जहाँ कहीं भी धूप सताती,
उसके नीचे झट सुस्ताते,
जहाँ कहीं वर्ष हो जाती,
उसके नीचे हम छिप जाते।
लगती जब भी भूख अचानक,
तोड़ मधुर फल उसके खाते,
आती कीचड़, बाढ़ कहीं तो,
झट उसके ऊपर चढ़ जाते।
अगर पेड़ भी चलते होते,
कितने मजे हमारे होते।

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